पहले अखिल भारतीय पुरवार समाज खरौंआ पुरवारों एवं पोरवाल समाज कि अन्य शाखाओं मे विभक्त था परन्तु समय के प्रभाव के साथ साथ विभिन्न स्थानो मे बसने वाले स्वजातीय बन्धुओं का पता चला तथा वे एक दुसरे के सम्पर्क में आये । कुछ दूरदर्शी लोगो ने परस्पर रोटी-बेटी के सम्बन्ध स्थापित करने की सोची । इस प्रकार बिछुड़े हुए बन्धुओ मे साहचर्य, एकता, व्यक्ति से देश व समाज की श्रेष्ठता की भावना के फ़लस्वरुप पुरवार महासभा का जन्म हुआ ।
उत्तर प्रदेशीय पुरवार / पोरवाल बन्धुओं के विचार से पुरवार/ पोरवाल शब्द की उत्पत्ति पोरबन्दर के अपभ्रंश से है तथा यह क्षेत्र भी तत्कालीन प्राग्वाट प्रदेश का अंश रहा होगा । श्री विमल कुमार कंजोलिया के अनुसार श्रीमाल व पद्मावती के संयुक्त प्रदेश का नाम प्राग्वाट प्रदेश पड़ा ।
प्राग क्षेत्र के प्रति समय के अनुरुप पाठको मे जागरुकता स्वाभाविक है। संस्कृत साहित्य का मध्य-युगीन इतिहास प्राग वंश या पुरवार/पोरवाल समाज के आख्यानों से भरा पड़ा है। प्राचीन ॠषियों की मान्यता के अनुसार पुरवार समाज आर्यावर्त का मूल निवासी है। वैदिक ॠषियों द्वारा स्थापित आर्य सभ्यता और वैदिक संस्कृति को अब तक जीवित बनाये रखने का सफ़ल प्रयास पुरवारो/ पोरवालो ने ही किया है। कल्याण तीर्थांक के लेखानुसार काश्मीर मे जम्मू से 23 मील दक्षिण मे 'पुरवार मण्डल' पंजाब और राजस्थान का पवित्र तीर्थ स्थान 'गया' के रुप मे सर्व मान्यता प्राप्त है। गया का शाब्दिक अर्थ है - छोड़ी गयी भुमि। यह तीर्थ क्षेत्र इस समय 'वैष्णोदेवी' के नाम से प्रसिद्ध है। यह वह स्थान है जहाँ पुरवार/ पोरवाल समाज का उदभव हुआ था। इसी को बाल्मीकीय रामायण 2/71/91 मे 'प्राग्वाट विख्यात नगर' के रूप मे प्रस्तुत करता है। 10वीं शताब्दी के बाद प्रान्तीय भाषाओं के विकास होने पर इसे पुर-मण्डल के नाम से सम्बोधित किया गया।
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